दूधनाथ सिंह की कहानियों में जीवन मूल्यडाॅ. अंषुला मिश्र अतिथि विद्वान, विभाग हिन्दी, शासकीय स्वामी विवेकानन्द महाविद्यालय, त्यौंथर जिला रीवा, मध्य प्रदेश, भारत सारांश दूधनाथ सिंह ने अपनी कहानियों मे जीवन मूल्य को स्थापित किया है। उन्हें कथा और शिल्प की नई चिंताएँ आज भी सता रही है। उनका मानना है कि कहानियों में विचार बिम्ब की अर्थछाया नई परिकल्पनाएँ समस्याएँ आज के प्रत्येक कथाकार के अन्तर्मानसिकता को घेरकर घुमड़ रही है। जहाँ एक प्राचीन जीवन मूल्यों को तरास कर नए जीवन मूल्यों को पुनस्र्थापित करने की होड़ लगी हुई है। रूढ़िवादीयों की परंपरा से पुरानी परंपरा के कशमकश में प्राणी घुटता जा रहा है। समाज में रूढ़िवादी बेड़ियाँ हर व्यक्ति को जकड़े हुई है। इसी अंतद्र्वन्द्व के बीच आज के कथाकारों ने नए जीवन मूल्यों को तलाषने का स्तव्य प्रयास किया। मानव मन को घुटन, अवसाद, ऊहापोह से उबारने की परिधि में प्रोफेसर दूधनाथ सिंह ने अपनी कहानियों में जन साधारण की भावदषाओं, आकांक्षाओं, प्रेरणओं और समस्याओं का यथा अवसन चित्रण एवं निदान ंिकया है। कथाकार दूधनाथ सिंह की कहानियों में रचनात्मक जिजीविशा का सृजनात्मक उत्साह व्यापक रूप से प्रकट हुआ है। मूल शब्दः जीवन मूल्य, रूढ़िवादीयों की परंपरा, घुटन, अवसाद, ऊहापोह प्रस्तावना दूधनाथ सिंह ने अनुभव किया है कि जीवन से, परिवेश से अपनी निजता जोडे़ रहना सरल नही है। यही कारण है कि उन्होंने परम्परा को नए बोध से समझा तथा उसे अपनी रचनात्मक जरूरतों के अनुकूल ढालकर ग्रहण किया। दूधनाथ सिंह ने अपनी कहानियों में नए मानव संघर्शो की नई सूझ पैदा की। जीवन की विद्रूपताओं, विसंगतियों को दूर करने की छटपटाहट उनकी कहानियों में देखा जा सकता है। उनकी कहानियों को स्वर अस्तित्ववादी न रहकर मानवतावादी हो गया है। दिन-प्रतिदिन के अनुभव उनकी कथा रचनात्मकता के जीवंत और अर्थवान हो उठे हैं। उन्होने अपने कथा प्रसंगों में प्रतीकों, बिम्बों, मिथको, अभिप्रायों और ध्वन्यार्थो को सहेजकर प्रस्तुत किया है। उन्होंने ईमानदारी से यह सच महसूस किया कि कथाकार समग्र परिवेशों के आघातों को सहता हुआ गढ़ता है। इस तथ्य को उद्घाटित करते हुए डाॅ. नगेन्द्र का कथन है- आज के रचनाकार ने महसूस किया है कि पूरा विश्व एक वैचारिक-बौद्धिक संक्रांति से गुजर रहा है। सिद्धांतों? मूल्यों, मान्यताओं की इतनी भारी टूट-फूट और सांस्कृतिक विघटन की हालत इतनी हाय-हत्या और हाहाकार के साथ शायद कभी नहीं आयी। पश्चिमी समाज की टेक्नालाजी और विज्ञान ने अपने प्रभाव से विश्व भर की मूल मूल्यदृश्टि में षंका पैदा कर दी है। विज्ञान ने मानव को शक्ति दी, पर विनाष का एक रास्ता भी खोल दिया। बुद्धिजीवी असहाय, लाचार और बौना हो गया। तीसरी दुनिया के देष थरथराहट में हांफ उठ रहे हैं, इस दृश्टि से ज्ञान का नया समाजशास्त्र विकसित हुआ है। जिसमें न अब फ्राॅयड महत्वपूर्ण है न किर्केगार्द। जीवन की भांति साहित्य निरंतर बदलता, विकसित होता रहता है। जिसे चेतना नियंत्रित नही करती, परिस्थितियां निर्धारित करती हैं।1 दूधनाथ सिंह की कहानियों में आस्था बटोरते आदमी की कहानियां है। उन्होंने जमीन में धॅसकर गहराई पैदा की है। वे भारतीय अस्मिता को तलाषने और कथा सृजन में नवीनताओं को प्रस्तुत करने हेतु संकल्पबद्ध होकर निकल पडे़ हैं। कथाकार ने अपनी कहानियों में समाज की स्थितियों के यथार्थ की पहचान को नई धार दी है। दूधनाथ सिंह की कहानियों में समकालीनता स्पश्टतः दिखाई देती है। स्वातंत्र्योŸार युगीन कथाकार समस्याओं से ठकराता है। व्यक्तिगत विफलता की समस्याएँ उसे छूकर निकल जाती है। समसामयिक चिन्तनधराओं और इतिहास की नई हलचलों ने रचनाकार को कथलेखन के लिए रचनाभूमि तैयार करती है। यही कारण है कि आज का कहानीकार अपने परिवेष को ही रचना खुश है। वह उन मिथकों का स्पर्श तक नही करता जिनसे जिंदगी के वृहŸार अर्थ संदर्भो की उजागर किया जा सकता है। आज उपभोक्तावादी संस्कृति किस तरह और किस बेषरमी से मानवतावादी जीवन मूल्यों और भारतीय संस्कारों का सिलसिलेवार ढंग से संहार कर रही है इनकी चिन्ता बहुत कम कहानीकारों को है। इस समय हिन्दी में कई पीढ़ियों के कहानीकार सक्रिय हैं। मानव जीवन की बिडम्बनाओं ने दूधनाथ जैसे कथाकार को अभिव्यक्ति के लिए चुनौती दी। यही कारण है उनकी अक्षुण्ण सृजनीशाीतला ने उसे स्वीकार ंिकया। वे शाोशकों की अमानवीयता और षोशितों की करुण निरीहता का चित्रण करते हुए पक्षधर कहानीकार के रूप में सामने आते है। सामाजिक जीवन मूल्य को रेखांकित करते हुए कथाकार ने लिखा है-“दलालों के मिठबोलेपन से मैं अच्छी तरह परिचित हूँ। लेकिन यह पहली बार ही देखा कि कपडे़ की दूकानों के दलाल रण्डियों के दलालों से कम षातिर नहीं होते। कैसी चूपड़ी बातें बना रहा है और कितनी आसानी से, जैसे सारी बातें रटी-रटायी हों! सिर्फ भाशा के मामले में यह कमजोर पड़ रहा है। वैसे किस तरह तुरत इसने सूँघ्ज्ञ लिया कि मैं कोई गैरभाशी हूँ। सच कहूँ, मुझे लिजलिजेपन की अनुभूति पहली बार इसकी ‘बोली’ सूनकर ही हुई थी। तुम अच्छी तरह जानती हो, मैं प्रान्तीयता में विश्वास नहीं रखता। लेकिन यहाँ कलकŸो में जब कोई बंगाली, हिन्दी बोलने की कोशिश करता है तो मेरी गर्दन में पीछे की तरफ कोई पंखदार कीड़ा रेंगता हुआ सिर में चढ़ने लगता है। यह मेरी कमजोरी हो सकती है।2 मिस्टरदास ने रंगनाथ से पूछा कि मेरे पहले इस कमरे में कौन रहता था? दास ने कहा -“मेरे यहाँ बड़े-बड़े लोग आते हैं तो इसको कुढ़न होती है। साँस फूलती है। ओर बीवी को हर साल लादे रहता है। जैसा खुद है वैसा ही दूसरों को समझता है। जब हफ़्ते में सिनेमा के पासेज मिल जाते थे, मिसेस मिश्रा बड़ी पवित्र थीं, अच्छी थीं। अब नहीं मिलते तो मिसेस मिश्रा खसलत वाली हो गयीं। पहले लड़की को क्यों नहीं सुधारता जो गैलरी और बाथरूम में सारी मुहल्ले के लौडों से लुका- छिपी खेलती है। सब रखते हैं बीवियाँ और राल टपकती है दूसरों औरतों को देखकर। कमीने.......।”3 ‘उत्सव’ कहानी के अन्तर्गत लेखक ने समसामयिक परिवेष का उल्लेख करते हुए लिखा है कि एक अमीर विधवा का खून हो गया। विधवा पूरे मकान में अकेली थी और उसके सम्बन्धियों के ‘आने तक संस्थान’ ने षव की सुरक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया। बद्दू विधवा के छोटे पोते- पोतियों से ऐसे हिल गय जैसे अपने बच्चों से भी कभी नहीं हिला था। अपने बच्चों को वह कभी भी गोदी नहीं उठाता था। अगर वे कोषिष भी करते तो बुरी तरह डाँट पड़ जाती। बच्चे हमेषा उसे सकपकायी निगाहों से देखते और उसके टलने का इन्तजार करते रहतें लेकिन यहाँ तो आलम ही दूसरा था। बद्दू साहब छोटी लिली को कंधो पर उठाये सड़क पर टहलाते, उसे बिल्कुल देते और अत्यन्त वत्सल भाव से उसके साथ तुतलाते रहते।4 समसामयिक परिवेष में जीवन मूल्य की तलाष करना कथाकार के चिन्तन का जीता जागता सबूत है। यथा - उसके कुछ दिनों बाद ही एक प्रोफेसर की बारी आयी, फिर षहर के सबसे बड़े डाक्टर की। दोनों ही बूढ़े थे, मगर उनकी बीवियाँ तीस-पैंतीस के आसपास थीं। एक के पास दो दर्जन कुŸो थे और दूसरी के पास दो दर्जन नौकर। एक अपने कुŸाों के संग षोक-मग्न थी, दूसरी अपने नौकरों के संग। एक जगह वे कुŸाों से सम्वेदना प्रकट करते रहे और दूसरी जगह नौकरों के संग। प्रोफेसर की बीवी ने कृतज्ञता में गद्गद होकर एक कुŸो का पिल्ला भेंट किया और डाक्टर की बीवी ने एक अदद आदमी का पिल्ला। दोनों कार्यालय के दरवाजे पर बाँध दिये गए। कुŸो पिल्ला कूँ-कूँ करता और भौकना सीखता था और आदमी का पिल्ला ही-ही करता हुआ पानी पिलाना सीखता था।5 सुखान्त कहानी में जनजीवन की बेवषी का एक चित्र दृश्टव्य है- बेचारी माँ काफी बूढ़ी हो गयी है। उनकी झुर्रियों में अब एक रोब की जगह असहायता झलकती है। वे डगर-मगर चलने लगी हैं। उनकी आवाज मद्धिम और दयनीय हो गयी है। वे दिन का अधिकांष भाग सोती रहती है। वे न रहें। मान लो कल ही वे चल बसें। तो मेरी बीवी क्या करेगी। तुम पट्टी को मालूम होगा। उसे ये दीवारें तुड़वानी पड़ेगी। उसे यह काम रातों-रात करना पड़ेगा। सुबह सारे लोग इकट्ठे होंगे। सारे परिचित और रिष्तेदार और स्नेहीजन। पिता के वे सारे दोस्त जो अभी भी गाँधी टोपियाँ लगाते हैं। वे मुझे देखकर खुष होंगे। मेरा स्वास्थ्य और मेरा चुप और मेरा सुखी दैनंदिन जीवन। ठीक है, अब इस वक्त एक नींद ले जी जाए। माँ को भी सोने दो.........और इन्तजार करो। वह दिन षायद दूर नहीं है।6 सुखान्त कहानी में ही जनजीवन का एक अन्य प्रसंग अवलोकनीय है- माँ सिसक रही हैं। पत्नी घुटनों में सिर छुपाये डरी हुई है। दोनों बच्चों की आँखों में आष्चर्य है और ठण्डा भय। वे अपनी माँ से चिपके हुए हैं। सड़क साफ है और एक हल्की-सी बौछार से धुल गयी है। तूफान निकल गया है और गर्माती-सी धूप निकल आयी है। ये पवित्र लोग हैं। इन्हें दुख है और आष्चर्य है। मेरे बेटे की दुबली, लम्बी बाँहे अपनी माँ के गले में अटकी हैं।7 माई का षोकगीत षीर्शक कहानी मानव जीवन मूल्यों से अनुप्राणित है। इसी कथा प्रसंग में गायत्री बेटी हमारी बहुत अच्छी कार्यकर्ता थी। लेकिन अभी उम्र का कच्चापन था। हमारे सामने कितना कठिन लक्ष्य है! कितना बड़ा काम है। हमें अपनी माता को मुक्त कराना है। तो हमारी नजर अपने लक्ष्य पर होनी चाहिए, न कि रोजमर्रा की छोटी-मोटी बातों पर। वैसे भी गायत्री बेटी को पति-पत्नी के व्यक्तिगत मामले में दखल देने का कोई हक नहीं था और अगर दखल देना ही था तो गाँव की महिलाओं के साथ वहाँ कीर्तन करना चाहिए था। फिर भी हमें गायत्री बेटी के लिए दुख है।8 कथाकार दूधनाथ सिंह ने सामाजिक विद्रूपताओं के अन्तर्गत नारी समाज पर होने वाले अत्याचारों की ओर संकेत किया है। सिखचों के भीतर षीर्शक में कहानी में सोम की बाँहे भी तो उसी तरह उठाती थीं। बिस्तर पर लेटे-लेटे वे दोनों बाँहें उठा देते। वह लजाती-लजाती उनमें ढल जाती। कई बार वह भागने को हुई तो उसने पाया कि बाँहे उसे घेरे हुए हैं। लेकिन बसन्त? उसकी बाँहें? उसने उस आवाहन का प्रत्युŸार कभी नहीं दिया। बसन्त की बाँहें उठतीं और फिर नीचे गिर जातीं। षर्म से वह इधर-उधर देखने लगता और हाथ पीछे बाँध लेता जैसे अपनी उँगलियों की जकड़ छिपा लेना चाहता हो। उसकी अन्तरंग अँाखों के सामने एक धुँधली-सी तसवीर र्थी वहाँ सोम का चेहरा था-वही एकदम मासूम, अनुभवहीन और षान्त-सा।9 इस प्रकार दूधनाथ सिंह की कहानियों में मानवीय संवेदना और जीवन मूल्य नये मानदण्डों के साथ प्रस्तुत किया गया है। उनकी कहानियों में जो मनोभाव व्यक्त होते हैं वे आत्मरत, आत्मघात, आत्मसंषय, आत्म-विडम्बना आदि की उपज है। बीसवीं षताब्दी के सातवें दषक की सचेतन कहानी के प्रवर्तन में दूधनाथ ंिसंह ने अपनी अलग पहचान बनायी है। समकालीन षहरी जीवन की विडम्बनाएँ परम्परा की बेड़ियों में कैद नारी समाज की छटपटाहट निम्न मध्यवर्गीय लोगों की आर्थिक विपन्नता कार्यालयों की यातनापरक स्थितियाँ, बाजारी और उपभोक्तावादी संस्कृति आदि उनकी कहानियों में प्रामाणिक रूप से चित्रित हुई हैं। उन्होंने संग्रहों की कहानियों में नितान्त सरलता के साथ निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति के सरोकारों और दैनन्दिनी जीवन में घटने वाली समान्य घटनाओं की प्रस्तुत किया है। उनकी कहानियों में पर्वतीय ग्राम्य जीवन के साथ-साथ महानगरीय जीवन भी चित्रित हुआ है। और निम्न वर्गीय जीवन के साथ-साथ मध्यवर्गीय जीवन का भी कथाचित्र देखा जा सकता है। वर्ण व्यव्स्था और जातिवाद के कारण होने वाले दलितों की दुर्दषा और वर्गसंघर्श की बात करते-करते वे अपनी कहानियों में ऐसी चीजे उठा देते है जो मानवीय संवेदना और जीवन मूल्य से जुड़ी हुई होती है। उनकी कहानियों की मूल विशय-वस्तु स्त्री पुरुश की संसर्ग जनित लालसा, संभोग और प्रताड़ना है। अनुभव की यथार्थता के कारण उनकी कहानियाँ प्रभावपूर्ण लगती है। दूधनाथ सिंह की कहानियों में दलित-षोशित की पक्षधरता भी है और घोर-व्यक्तिवादी अस्तित्ववादिता भी। वे अकहानी आंदोलन के पक्षधर के रूप में उभर कर सामने आए। इस कालावधि में उनके कई कहानी संग्रह प्रकाषित हुए हैं। भाई का षोकगीत, प्रेमकथा का अन्त न कोई, सुखान्त, धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे, सपाट चेहरे वाला आदमी इन समग्र संग्रहो की कहानियों में अकहानी के प्रभाव से बहुत कुछ उन्मुक्त हो चुके हैं लेकिन दूधनाथ सिंह की कहानियों में अपने समय के यथार्थ और व्यक्ति के अन्तर्जगत का चित्र सहज ही देखा जा सकता है। उनकी कथात्मक निश्ठा मानवीय संवेदना और जीवन मूल्य से सम्पृक्त रही है। इसलिए मैं यह कह सकती हूँ कि दूधनाथ सिंह की कहानियों में मानवीय संवेदना और जीवन मूल्यों का चित्रण स्वतंत्र एवं विषिश्ट है। कुल मिलाकर मैं इस निश्कर्श पर पहुँचती हूँ कि दूधनाथ सिंह की संग्रहीत कहानियाँ सामंती परिवारों के टूटने, बिखरने, उनकी छद्म आधुनिकता, नारियों की दषा-दुर्दषा, ग्रामीण, परिवेषीय अप्रतिम चित्र उपस्थित करती है। उन्होंने गाँव में आने वाले बदलाव और इस बदलाव के कारण षोशण के नये तरीकों का भी चित्रण किया है। संदर्भ सूची 1. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृश्ठ 737, डाॅ. नगेन्द्र. 2. सपाट चेहरे वाला आदमी-दुःस्वप्न, पृश्ठ 40, दूधनाथ सिंह. 3. सपाट चेहरे वाला आदमी-सब ठीक हो जायेगा, पृश्ठ 61, दूधनाथ सिंह. 4. सुखान्त-उत्सव, पृश्ठ 66, दूधनाथ सिंह. 5. वही, पृश्ठ 66. 6. सुखान्त, पृश्ठ 126, दूधनाथ सिंह. 7. सुखान्त, पृश्ठ 146, दूधनाथ सिंह. 8. वही, पृश्ठ 96. 9. प्रेम कथा का अन्त न कोई-सीखचों के भीतर, पृश्ठ 86.
डाॅ. अंशुला मिश्रा. दूधनाथ सिंह की कहानियों में जीवन मूल्य. International Journal of Advanced Education and Research, Volume 6, Issue 2, 2021, Pages 06-08